आजकल वामपंथी प्रभाव के चलते कहानी, उपन्यासों
और फिल्मो में यथार्थ दिखाने का प्रचलन बड़ा है. सचाई के नाम पर एसी कई फिल्मे बनी
जिनमे वीभत्सता, हिंसा
और गाली गलोच की भरमार होती है. अगर हम सोचे तो समाज का ये यथार्थ त्रेता और युग
में भी रहा होगा. पर ग्रंथों में वो इतने वीभत्स रूप में नहीं दिखाया जाता. और सच
पूछो तो इससे बचने की कोशिस की जाती
है. इसीलिये पुरानी कहानिया और फिल्मे भी अधिकतर सुखान्त ही होती थी.
मंच पर या खेल के मैदान से भी संन्यास या बिदाई का वही सबसे उपयुक्त समय
माना जाता है, जब वह अपनी सम्पूर्ण उंचाई पर हो. इसीलिए संत तुलसीदास ने भी अपनी
रामचरित मानस राम के राज्याभिषेक के साथ ही समेत ली. वाल्मीकि रामायण के लवकुश
कांड की सच्चाई के बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता पर जन सामान्य के मन में आज भी उसको लेकर दुविधा ही है. इसीलिये रामायण धारावाहिक भी रामानंद सागर जी ने राज्याभिषेक के समय ही
सम्पूर्ण कर दी थी. बाद में वाल्मीकि समाज के दबाव के चलते सरकार के
आग्रह पर उन्होंने उत्तर रामायण पर अलग से इस धारावाहिक का विस्तार उत्तर रामायण
के चलते किया. मंदिरों में भी भगवान् की मूर्तियाँ यौवनावस्था की ही रही जाती है.
सबको पता होता है राम जी हो या कृष्णा जी बुजुर्ग हुए होंगे पर उनकी बुजुर्गावस्था
की मूर्तियाँ किसी मंदिर में नजर नहीं आती. क्योंकि ऋषि-मुनि और लेखक जिन्होंने
हमारे प्राचीन ग्रन्थ लिखे, उनका उद्देश्य जीवन का यथार्थ बताना नहीं था वरन समाज
के सामने एक आदर्श उपस्थित करने का था जिससे प्रेरणा ली जा सके.
समाज
ने भी इस भाव को समझा, इसीलिये आधिकारिक और प्राचीन होने के बाद भी वाल्मीकि
रामायण से अधिक तुलसीकृत रामायण को महत्व दिया गया. महाभारत को महत्वपूर्ण धार्मिक
ग्रन्थ के रूप में स्वीकार तो किया परन्तु स्वयं व्यास कृत होने के बाद भी उसका रामायण
की तरह पठन पाठन की परम्परा स्थापित न हो
सकी.
जयकाव्य
जो कि महाभारत के नाम से प्रसिद्ध है, अनेक विद्वानों द्वारा, श्रीमद्भागवत, गर्ग
संहिता और हरिवंश पुराण आदि ग्रंथो से ज्यादा एतिहासिक माना जाता है. उसके प्रति
हर हिन्दू के मन में सम्मान है पर जो पूज्यभाव और श्रद्धा श्रीमद्भागवत के प्रति
जनमानस में है वह महाभारत को नहीं मिल पाई.
सत्य
सदैव सराहनीय है पर उसे सम्पूर्ण रूप से दिखाना उतना सराहनीय नहीं हो है. टी वी के
"बिग बोस" कार्यक्रम और उन्नत साहित्य के बीच की विभाजन यही है जिसे हम
यथार्थ और आदर्श कह सकते हैं. सच और औचित्य के इस अंतर को समझना ही चाहिए. शौचालय
व्यक्ति के जीवन का अभिन्न हिस्सा है पर सच और सम्पूर्णता के नाम पर हम उसे दिखाने
के लिए कैमरा वहां तो नहीं ले जा सकते. परन्तु समय बतायेगा, यथार्थ के नाम पर गाली
गलौच और बेडरूम सीन दिखाने वाले लोग शौचालय को भी प्रदर्शन की वस्तु बना देंगे.
आधुनिक कला के नाम पर विदेशो में ये पहले हुआ भी है.
लगभग
२१ वर्षों से प्रतिवर्ष किसी एक हिन्दू विषय को लेकर प्रदर्शनी का निर्माण जीवन का
अंग बन चूका है. वेद, योग, कला, ग्रन्थ, पंथ, परम्पराये जैसे कुछ विषयो के अलावा
भगवान् शिव, राम, कृष्णा आदि पर भी शोधपूर्ण चित्रमाला बनाने का सौभाग्य मुझे
मिला.
चूंकि
श्रीराम पर प्रदर्शनी के लिए वाल्मीकि रामायण से लेकर कई अन्य कई आधुनिक लेखको
जैसे श्री नरेन्द्र कोहिली जी के ग्रन्थ पढ़ने का अवसर मिला पर प्रस्तुति में बहुत
सावधानी रखनी पडी की कही एतिहासिक राम के चक्कर में समाज की प्रभु राम के प्रति
श्रद्धा को चोट न पहुँच जाए.
श्रीकृष्ण
के समय तो यह समस्या और भी बढ गई. क्योंकि श्री राम का जीवन तो बहुत सरल जीवन है.
पर श्रीकृष्ण....बाप रे बाप! भगवान् बचाए इस छलिये से. पर भगवान् भी कैसे
बचाएगा..."येथे चान्शः कृष्णस्तु भगवान् स्वयं" और सब तो भगवान के अंश
है. ये तो स्वयं परमात्मा ही है न, फिर
इससे कौन बचाए ? इससे बचने का एक ही तरीका है इसके चक्कर में ही न पडा जाए.
पर जब किस्मत ही खराब हो तो आदमी खुद ही कुल्हाड़ी पर जाकर पैर भी मारता है न. फिर
रोता भी रहता है कि मैं बर्बाद हो गया. एक संत के प्रवचन सुन रहा था की कृष्ण से
प्रेम करोगे तो वो तुमसे वो सारी वस्तुए छीन लेगा जिनसे तुम प्रेम करते हो.
जन्माष्टमी
को ही मेरा भी शरीर इस दुनिया में आया पर श्रीकृष्ण के साहित्य से ज्यादा पाला
नहीं पडा था. भजन गाता था कुछ कविताएं भी लिखी. पर जिस वर्ष मैं प्रदर्शनी बनाने
के लिए श्रीकृष्ण के चरित में डूबा उस समय पता चला की ये कृष्ण इतना बड़ा खतरा है
कि इसमें सामने वाले को ये भी पता नहीं चलता कि ये खतरा है. अपने मंचों पर श्री
राम की कथा तो थोड़ी बहुत कर भी लेता हु... पर श्रीकृष्ण कथा तो कभी संभव ही नहीं
हो पाई. एक समय पर एक ही काम हो सकता है या तो रो लो या बोल लो. जिस वर्ष
श्रीकृष्ण पर प्रदर्शनी बनाई वह वर्ष मेरे जीवन का सबसे कठिन वर्ष रहा , पिताजी और
माताजी की छाव से एक साथ वंचित हो गया, रीड ही हड्डी में बड़ी समस्या हो गई,
श्रीकृष्ण की मूर्तिया विदेश भेजने में दिमाग का दही हो गया. बहुत सी घटनाओं ने
सिखा और समझा दिया कि ...बेटा गलत आदमी के
चक्कर में फंस गए हो. पर क्या करे ? ये
चितचोर ...जितना मारे, सामने वाला कहता है...वंस मोर. फिर भी अपुन इसके चक्कर से
कुछ समय के लिए निकल भागे. पहले हम मेरे मित्र विनोद अग्रवाल की कैसेट्स सुनते
रहते थे और रोते रहते थे, एक दिन गुस्सा आया और मित्र मनोज त्यागी जो अभी संस्कार
टी वी के सी ई ओ है के साथ यमुना जी तक गए और पूरी ८६ केसेट्स जल में फैंक कर आ
गए. नशा ख़त्म होने के बाद वापस देश धर्म आदि की बातें महत्वपूर्ण लगने लगी. लगता
है श्रीकृष्ण की भक्ति जरूरी है....पर उससे पहले श्रीकृष्ण की तरह देश धर्म के लिए
कुछ न कुछ योगदान भी जरूरी है.
अब आता
हु मूल विषय पर. मूलत: ये बात में वर्तमान में मुरारी बापू के श्रीकृष्ण के बारे
में बारे में उठे विवाद के सन्दर्भ में कहना चाह रहा हूँ. जिस वीडियो क्लिपिंग को
लेकर ये विवाद खडा हुआ, मैंने उस कथा का पूरा
प्रसंग देखा सुना है. इसलिए अपने विचार व्यक्त कर रहा हु. मूलतः जो भी
व्यक्ति दुनिया में आया है वो किसी एक तत्व की निर्मिती नहीं है. परमात्मा भी
मानुष शरीर लेंगे तो गुणदोष सभी से तो निर्मित होते होंगे. लेकिन हमारे महापुरुषों
ने हमें उसके बारे में जितना बताना उचित था उतना ही बताया है.
परन्तु
वर्तमान में यदि बाजार में जाए तो पौराणिक विषयों पर देवीदत्त पटनायक, शिवाजी
सावंत, अमीश आदि अनेक लेखको की पुस्तके मिल जाएगी जो पूरे बाजारू ढंग से लोगों को
यथार्थ के नाम पर जो परोस रहे है...उसकी सत्यता का न कोई पैमाना है और न ही उसके
लिए हम कुछ कहना नहीं चाहते क्योंकि ये लेखक मात्र है. जन सामान्य के मन में उनके
प्रति न कोई श्रद्धा है और न उनकी पुस्तकों का सामान्य जन पर कोई प्रभाव होता है.
पर व्यासपीठ के लिए एक श्रद्धा का भाव समाज में बना हुआ है. उस पर बैठकर क्या और
कैसे बोलना ये सब ग्रंथों में वर्णित है.
परन्तु
जैसे लेखकों ने कथाओं के नाम पर अपनी सोच विचार उपन्यासों में देना प्रारम्भ किये,
व्यासपीठ भी कुछ लोगों के लिए अपने निजी विचार फैलाने का जरिया बन गई. वर्तमान में
गिने-चुने ही कथाकार है जो ग्रंथों की बात मंच से कह रहे है. बाकी अनेक वक्ताओ ने
कथा मंच को धनार्जन, राजनेताओं और मीडिया में पैठ या देश विदेश में प्रसिद्ध होने
के लिए माध्यम बना लिया. थोड़ा नीचे की भाषा में समझे तो जिस प्रकार कोई महिला
राजनीति या फिल्मों में नाम कमाने के लोभ में शार्टकट अपनाकर स्वयं की मर्यादा को
बेचने को तैयार हो जाती है वैसे ही ये कथाकार नाम, दाम और जल्दी से आगे निकलने
के लिए हर रास्ता अपनाने को तैयार हो जाते हैं. इस जल्दबाजी या स्वार्थ में धर्म
की कितनी हानि होती है ये पिछले कई उदाहरण से हम देख-समझ सकते है.
अभी
व्यासपीठ पर मुरारी बापू का जार-जार रोते हुए वीडियो आप देख रहे होंगे...जिसे देख
कर भक्तजन पानी-पानी हुए जा रहे है. उनसे पूछना चाहिए बापू अगर सम्वादी है तो
चर्चा क्यों नहीं करते. एक तरफ़ा आंसू बहाकर सच के साथ खड़े लोगों को खलनायक सिद्ध
क्यों करना चाहते हो ?
समाधि
और मरने की बात कहकर अपने भक्तों को तो रुला सकते हो पर अपने पाप को भुला नहीं सकते
हो. .....निरंतर
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